भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्री बाई फुले का जीवन परिचय - TheMasterJi.com

भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्री बाई फुले का जीवन परिचय

सावित्री बाई फुले का जीवन परिचय 


 03जनवरी 2024

जाओ जाकर पढ़ो लिखो बनो मेहनती, बनो आत्मनिर्भर काम करो ज्ञान और धन इकट्ठा करो. ज्ञान के बिना सब खो जाता है ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते हैं इसलिए खाली मत बैठो. जाओ जाकर शिक्षा लो। 

"स्वाभिमान से जीने के लिए पढ़ाई करो, पाठशाला ही इंसानों का सच्चा गहना है।"

शिक्षा समाज और मानव जाति को सही गलत का पहचान कराती है, जीवन को सुंदर और सशक्त बनाती है। जब औरतों के लिए लिखना पढ़ना एक बड़ी बात थी उस समय सावित्री बाई फुले ने अपने पति को चिट्ठियां लिखती है 

जातिवाद, महिला अधिकारों के खिलाफ, रूढ़िवादी परंपराओं, बाल विवाह, सती प्रथा, छुआछूत, भेदभाव, अंधविश्वास, पाखंडवाद का विरोध करने वाली और विधवा विवाह, अछूतों व महिलाओं के लिए स्कूल व अस्पताल खोलने वाली महिलाओं की मुक्ति के लिए मिशन चलाने वाली महान क्रांतिकारी प्रथम महिला शिक्षिका माता सावित्रीबाई फुले जी को शत् शत् नमन,,,, महिलाओं को शिक्षित करने के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाली महान समाज सेविका को मेरा शत शत नमन .

3 जनवरी, सावित्रीबाई फुले जयंती 


सावित्री बाई फुले 

नाम– सावित्रीबाई फुले

जन्म– 3 जनवरी सन् 1831

मृत्यु– 10 मार्च सन् 1897


उपलब्धि


कर्मठ समाजसेवी जिन्होंने समाज के पिछड़े वर्ग खासतौर पर महिलाओं के लिए अनेक कल्याणकारी काम किये, उन्हें उनकी मराठी कविताओं के लिए भी जाना जाता है।


जन्म व विवाह 


सावित्रीबाई फूले का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगाँव नामक स्थान पर 3 जनवरी सन् 1831 को हुआ। उनके पिता का नाम खण्डोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मीबाई था। सन् 1840 में मात्र नौ वर्ष की आयु में ही उनका विवाह बारह वर्ष के ज्योतिबा फूले से हुआ।


महात्मा ज्योतिबा फूले स्वयं एक महान विचारक, कार्यकर्ता, समाज सुधारक, लेखक, दार्शनिक, संपादक और क्रांतिकारी थे। 


   सावित्रीबाई पढ़ी-लिखी नहीं थीं। शादी के बाद ज्योतिबा ने ही उन्हें पढ़ना-लिखना सिखाया। बाद में सावित्रीबाई ने ही पिछड़े समाज की ही नहीं, बल्कि देश की प्रथम शिक्षिका होने का गौरव प्राप्त किया। उस समय लड़कियों की दशा अत्यंत दयनीय थी और उन्हें पढ़ने लिखने की अनुमति तक नहीं थी। इस रीति को तोड़ने के लिए ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने सन् 1848 में लड़कियों के लिए एक विद्यालय की स्थापना की। यह भारत में लड़कियों के लिए खुलने वाला पहला स्त्री विद्यालय था।


सावित्रीबाई फुले कहा करती थीं "अब बिलकुल भी खाली मत बैठो, जाओ शिक्षा प्राप्त करो!"


सचमुच जहाँ आज भी हम लैंगिक समानता (gender equality) के लिए संघर्ष कर रहे हैं वहीं अंग्रेजों के जमाने में सावित्रीबाई फुले ने ओबीसी महिला होते हुए हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ जो संघर्ष किया वह अभूतपूर्व और बेहद प्रेरणादायक है. ऐसी महान आत्मा को शत-शत नमन!


समाज का विरोध 


सावित्रीबाई फूले स्वयं इस विद्यालय में लड़कियों को पढ़ाने के लिए जाती थीं। लेकिन यह सब इतना आसान नहीं था। उन्हें लोगों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। उन्होंने न केवल लोगों की गालियाँ सहीं अपितु लोगों द्वारा फेंके जाने वाले पत्थरों की मार तक झेली। स्कूल जाते समय धर्म के ठेकेदार व स्त्री शिक्षा के विरोधी सावित्रीबाई फूले पर कूड़ा-करकट, कीचड़ व गोबर ही नहीं मानव-मल भी फेंक देते थे। इससे सावित्रीबाई के कपड़े बहुत गंदे हो जाते थे अतः वो अपने साथ एक दूसरी साड़ी भी साथ ले जाती थीं जिसे स्कूल में जाकर बदल लेती थीं। इस सब के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी व स्त्री शिक्षा, समाजोद्धार व समाजोत्थान का कार्य जारी रखा।


विधवा पुनर्विवाह के लिए संघर्ष 


स्त्री शिक्षा के साथ ही विधवाओं की शोचनीय दशा को देखते हुए उन्होंने विधवा पुनर्विवाह की भी शुरुआत की और 1854 में विधवाओं के लिए आश्रम भी बनाया। साथ ही उन्होंने नवजात शिशुओं के लिए भी आश्रम खोला ताकि कन्या शिशु हत्या को रोका जा सके। आज देश में बढ़ती कन्या भ्रूण हत्या की प्रवृत्ति को देखते हुए उस समय कन्या शिशु हत्या की समस्या पर ध्यान केंद्रित करना और उसे रोकने के प्रयास करना कितना महत्त्वपूर्ण था इस बात का अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं। विधवाओं की स्थिति को सुधारने और सती-प्रथा को रोकने व विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए भी उन्होंने बहुत प्रयास किए। सावित्रीबाई फूले ने अपने पति के साथ मिलकर काशीबाई नामक एक गर्भवती विधवा महिला को न केवल आत्महत्या करने से रोका अपितु उसे अपने घर पर रखकर उसकी देखभाल की और समय पर डिलीवरी करवाई। बाद में उन्होंने उसके पुत्र यशवंत को दत्तक पुत्र के रूप में गोद ले लिया और ख़ूब पढ़ाया-लिखाया जो बाद में एक प्रसिद्ध डॉक्टर बना।


कवयित्री के रूप में सावित्रीबाई फूले


उन्होंने दो काव्य पुस्तकें लिखीं-

 ‘काव्य फूले’

‘बावनकशी सुबोधरत्नाकर’


बच्चों को विद्यालय आने के लिए प्रेरित करने के लिए वे कहा करती थीं-

  “सुनहरे दिन का उदय हुआ आओ प्यारे बच्चों आज हर्ष उल्लास से तुम्हारा स्वागत करती हूं आज”


पिछड़ा शोषित उत्थान में अतुलनीय योगदान 


सावित्रीबाई फूले ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपने जीवनकाल में पुणे में ही उन्होंने 18 महिला विद्यालय खोले। 1854 ज्योतिबा फूले और सावित्रीबाई फूले ने एक अनाथ-आश्रम खोला, यह भारत में किसी व्यक्ति द्वारा खोला गया पहला अनाथ-आश्रम था। साथ ही अनचाही गर्भावस्था की वजह से होने वाली शिशु हत्या को रोकने के लिए उन्होंने बालहत्या प्रतिबंधक गृह भी स्थापित किया।


   समाजोत्थान के अपने मिशन पर कार्य करते हुए ज्योतिबा ने 24 सितंबर 1873 को अपने अनुयायियों के साथ ‘सत्यशोधक समाज’ नामक संस्था का निर्माण किया। वे स्वयं इसके अध्यक्ष थे और सावित्रीबाई फूले महिला विभाग की प्रमुख। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य शूद्रों(obc) और अति शूद्रों को उच्च जातियों के शोषण से मुक्त कराना था। ज्योतिबा के कार्य में सावित्रीबाई ने बराबर का योगदान दिया। ज्योतिबा फूले ने जीवन भर निम्न जाति, महिलाओं और पिछड़े शोषितों के उद्धार के लिए कार्य किया। इस कार्य में उनकी धर्मपत्नी सावित्रीबाई फूले ने जो योगदान दिया वह अद्वितीय है। यहाँ तक की कई बार ज्योतिबा फूले स्वयं पत्नी सावित्रीबाई फूले से मार्गदर्शन प्राप्त करते थे।

   28 नवम्बर 1890 को महात्मा ज्योतिबा फुले की मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों के साथ ही सावित्रीबाई फूले ने भी सत्य शोधक समाज को दूर-दूर तक पहुँचाने, अपने पति महात्मा ज्योतिबा फूले के अधूरे कार्यों को पूरा करने व समाज सेवा का कार्य जारी रखा। 


मृत्यु- इतनी बड़ी करुणा की देवी कि, मौत को भी गले लगा लिया


सन् 1897 में पुणे में भयंकर प्लेग फैला। प्लेग के रोगियों की सेवा करते हुए, प्लेग से तड़पते हुए अछूत जाति के बच्चे को  पीठपर लाद कर लाने के कारण सावित्रीबाई फूले स्वयं भी प्लेग की चपेट में आ गईं और 10 मार्च सन् 1897 को उनका भी देहावसान हो गया।


सन्देश-


उस ज़माने में ये सब कार्य करने इतने सरल नहीं थे जितने आज लग सकते हैं। अनेक कठिनाइयों और समाज के प्रबल विरोध के बावजूद महिलाओं का जीवनस्तर सुधारने व उन्हें शिक्षित तथा रूढ़िमुक्त करने में सावित्रीबाई फूले का जो महत्त्वपूर्ण दया, त्याग और योगदान रहा है उसके लिए देश हमेशा उनका ऋणी रहेगा।



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